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मानवता के लिए अनिवार्य अंबेडकर - सुरजीत कुमार सिंह

युवा संवाद -  दिसंबर 2017 अंक में प्रकाशित

जन्म के एक सौ छब्बीसवें और परिनिर्वाण के इकसठवें वर्ष में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के चिंतन और विचारों की अधिक प्रासंगिकता है। उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक परिवर्तन के लिए आजीवन संघर्ष किया। उनके विचारों को आज सर्वकालिक और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की आवश्यकता है। उनकी दृष्टि अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर असमानता के विरुद्ध है। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक विषमता के विरुद्ध निरंतर संघर्ष किया और सारे मनुष्यों की बराबरी में उनका दृढ़ विश्वास था। वे कहते थे कि किसी भी तरह की असमानता और गैर बराबरी समाज में विघटन पैदा करती है। इसीलिए उनका मानना था कि इस विषमता को दूर करने के लिए राज्य को कड़ा हस्तक्षेप करना चाहिए। भारतीय समाज में सदियों से मानवीय गरिमा का हनन होता आया है, जहां मनुष्य ही मनुष्य से घृणा करते हैं।

 

असमानता की यह स्थिति एक राष्ट्र के तौर पर भारत को सशक्त नहीं बनाती है। इसके उपायों के बारे में उन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भारत में जातिभेद का उच्छेद लिखा। इसमें वे कहते हैं कि भारत में जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से आपस में मिली हुई हैं। उनमें एक तरह की श्रेणीगत असमानता है यानी सिर्फ सबसे ऊपर बैठी जाति ही नीचे वालों  से घृणा नहीं करती बल्कि नीचे वाली अपने नीचे वाले से वैसा ही बुरा व्यवहार करती है। अगर हमें इनको दूर करना है तो राज्य की दखल और आपस में व्यक्तियों का मेल-मिलाप दोनों आवश्यक है। भारत में जातिगत व्यवस्था लोगों के बर्ताव और व्यवहार में स्वयं परिवर्तन नहीं लाने वाली है, बल्कि इसके लिए कड़े कानून और दंड के नियम का पालन होना चाहिए। जाति व्यवस्था में स्वतः परिवर्तन होना होता तो लोग अपने व्यवहार में सदियों पहले परिवर्तन लाए होते। इतिहास में कई संत और महापुरुष आए और उन्होंने असमानता मिटाने की आध्यात्मिक बातें कीं लेकिन वह बात बहुत कम लोगों ने सुनीं। अलग-अलग धर्म बन जरूर गए पर जाति वैसी की वैसी ही रही।

 

बौद्ध धर्म के माध्यम से बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर पूरी दुनिया में वैश्विक एकता और मैत्री की बात करते हैं। आज जब दुनिया आतंकवाद, युद्ध और नाभिकीय विनाश के रास्ते पर बढ़ रही है, तब डॉ. अंबेडकर की दूरदृष्टि और बौद्ध धम्म की दया, करुणा, मैत्री और अहिंसा की नई राजनीतिक व्याख्या देने वाला उनका संदेश ही मानव के जीवन को एक नई दिशा दे पाएगा। भारतीय परिप्रेक्ष्य में आज जैसी राजनैतिक उठापटक कभी-कभी ही हुई है। आजादी के 70 वर्षों बाद राजनीतिक दलों के मध्य लोकतांत्रिक व्यवहार टूट रहा है। उन्होंने समाज में सांप्रदायिक और धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ाया है और उन्माद पैदा किया है। पार्टियां देश की सामाजिक व आर्थिक असमानता को खाद-पानी की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स, वल्र्ड सोशल फोरम और थामस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्री ऊंचे स्वर में चेतावनी दे रहे हैं कि भारत में गैर बराबरी बहुत बढ़ गई है। इसके जिम्मेदार राजनीतिक दल हैं। उनके आचरण के कारण हमारे आजादी के नेताओं का सपना टूटा है। यथास्थितिवादी दल

 

परिवर्तन का शोर मचा रहे हैं और मूलभूत परिवर्तन का दावा करने वाली साम्यवादी, समाजवादी और अंबेडकरवादी राजनीति खामोश और लाचार सी लगती है। ऐसा उन बौने राजनेताओं के कारण हुआ है जो न तो विचार की नई व्याख्या कर पा रहे हैं न संविधान की रक्षा। आज उसी का परिणाम है कि लोकतांत्रिक मूल्य खंडित हो रहे हैं, नागरिकों के लोकतांत्रिक व्यवहार का कोई मानक और आदर्श है ही नहीं। देश के कई क्षेत्रों में शोषित समाज पर और लेखकों, बुद्धिजीवियों, रंगकर्मियों, संस्कृतिकर्मियों पर हमले बढ़े हैं और पत्रकारों की हत्याएं हो रही हैं। यह स्थितियां उस संविधान की भावना के विरुद्ध है जिसे बाबा साहेब ने बनाया था। भारत के बहुत सारे पंथों, जातियों, धर्मों और भाषाओं को संविधान के एक सूत्र में बांधा है और वह सूत्र है भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था। अगर भारत के विभिन्न समुदाय अपने-अपने तरीके से सोचेंगे और अलग-अलग तरीके से देश चलाना चाहेंगे तो वह एक भारतीय राष्ट्र के लिए हितकारी नहीं होगा। लेकिन उससे भी ज्यादा अनर्थकारी स्थिति तब होगी जब सभी पर एक ही समुदाय (बहुसंख्यक समाज) की सोच आरोपित कर दी जाए और बाकी समाजों की परंपरा और सामूहिक हितों को नजरअंदाज कर दिया जाए।

 

वह भारतीय संविधान के मूल्यों के विपरीत होगा। जिस दर्शन को संविधान सभा के महान नेताओं ने हमारे सामने रखा था, वही हमारा मूल आदर्श होना चाहिए। वह आदर्श ही आज समाज को बचाएगा, लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करेगा और तभी हम एक गणराज्य बनने का लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे। ऐसा गणराज्य जिसमें सभी भारतीयों को सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्याय मिल सकेगा और जहां पर किसी भी व्यक्ति के साथ, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा और कोई किसी का शोषण नहीं करेगा। भारतीय संविधान में दिए गए ‘नीति निर्देशक तत्व’ भारतीय राज्य सरकारों को गतिशीलता प्रदान करेंगे जिससे कोई भी व्यक्ति व बच्चा भूख से दम नहीं तोड़ देगा और किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए नहीं धमकाया जाएगा कि वह एक अलग और नवीन विचार की स्थापना करता है। बाबा साहेब के 125वें जयंती वर्ष में उन्हें देश-विदेश में समाज और सरकार सभी स्तरों पर याद किया गया। देर से ही सही लेकिन युवा संवाद का यह अंक उसी दिशा में एक लघु प्रयास है। बाबा साहेब के समतावादी दर्शन को केंद्र में रखकर संवाद बनेगा तो संवैधानिक मूल्य बचेंगे और भारत के साथ दुनिया का भविष्य भी उज्ज्वल बनेगा।

 

(लेखक महात्मा गाधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा. के डॉ.  भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केंद्र के प्रभारी निदेशक हैं