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2019 का चुनाव जनता लड़ेगी या गठबंधन

युवा संवाद - फरवरी 2019 अंक में प्रकाशित

श्याम बेनेगल की एक फिल्म है वेलकम टू सज्जनपुर’। उस फिल्म के दो कोरस हैं। एक में तो देश में राजतंत्र और सामंतवाद समाप्त करके लोकतंत्र के आगमन का उत्सव मनाया जा रहा है। दूसरे में लोकतंत्र के पतन पर तंज है। पहला गीत है दृराजा गए रानी गईं, देश भी स्वतंत्र है, अब तो प्रजातंत्र है। दूसरा गीत है जिसकी लाठी उसकी भैंस आपने बना दिया। नोट की खनखन सुनाके, वोट को गूंगा किया। दूसरा गीत मौजूदा दौर में ज्यादा सटीक है। सत्ता और धन जितना दिखते नहीं उससे कहीं ज्यादा हमारे लोकतंत्र को संचालित कर रहे हैं। इस बात को जेम्स क्रैबट्री ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘द विलेनेयर राज’ में ज्यादा खुलकर व्यक्त किया है। उनकी किताब का पहला अध्याय ही अंबानी की दौलत और उसकी हनक पर केंद्रित है। इसलिए जनता और महागठबंधन दोनों की संरचना सत्ता और धन से बाहर बनेगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इंटरव्यू में बहुत होशियारी से 2019 के आख्यान को बदलने का प्रयास किया है। उन्होंने अपनी धन और राजसत्ता की ताकत से यह मान लिया है कि जनता उन्हीं के साथ रहने वाली है। आज मोदी जी स्वयं कह रहे हैं कि मोदी ही जनता हैं और जनता ही मोदी है। चुनाव से पहले विपक्ष के किसी प्रकार के महागठबंधन के निर्माण के मार्ग में क्षेत्रीय नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा तो अड़चन है ही कांग्रेस की अपनी कमजोरी भी छोटी अड़चन नहीं है। यही कारण है कि शरद पवार कभी कहते हैं कि वे गठबंधन बनाने के लिए जुट रहे हैं तो फिर कहते हैं कि गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो सकता, वह होगा तो क्षेत्रीय स्तर पर ही होगा। उसके बाद आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और ममता बनर्जी सक्रिय होते हैं फिर उनकी सक्रियता को किसी न किसी तरह का ग्रहण लग जाता है। यही कारण है कि अखिलेश यादव और मायावती कांग्रेस के नजदीक आते आते फिर दूर चले जाते हैं और केसीआर के फेडरल फ्रंट के साथ पींगें बढ़ाने लगते हैं।

 

लेकिन मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। यह मामला वैसा ही है जैसे कि कोई भारत के विभाजन के लिए सिर्फ महात्मा गांधी, नेहरू और जिन्ना को दोष देकर खामोश हो जाए। जिस तरह भारत के विभाजन के लिए दुनिया की साम्राज्यवादी और पूंजीवादी शक्तियां दोषी थीं उसी प्रकार से महागठबंधन के निर्माण के रास्ते में क्षेत्रीय नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं से ज्यादा सांप्रदायिक और पूंजीवादी शक्तियां की बड़ी बाधा है। सांप्रदायिक शक्तियां नहीं चाहती कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग किसी प्रकार का ऐसा महागठबंधन बने जिसका सुर किसी भी हद तक सेक्यूलर हो। जहां तक उदारीकरण की बात है तो वे ताकतें यह तो जानती हैं कि कांग्रेस पार्टी ही उदारीकरण की जनक है लेकिन उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून और किसानों के प्रति ज्यादा हमदर्दी दिखाने के लिए कांग्रेस पार्टी को अभी तक माफ नहीं किया है। उन्हें लगता है कि देश में एक प्रकार का ध्यान बंटाने का एजेंडा चलते रहना चाहिए ताकि जनता और उसके आंदोलनों की उदारीकरण की ओर निगाह ही न जाए। कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाती इसलिए पूंजीपतियों ने उसके मुकाबले मोदी और संघ परिवार पर ज्यादा भरोसा करना शुरू कर दिया है।

इसलिए मोदी जी गलत कहते हैं कि एक ओर जनता है और दूसरी ओर महागठबंधन। दरअसल एक ओर पूंजीपति और संघ परिवार है और दूसरी ओर इस देश का संविधान और उसको अपनाने और धारण करने वाली जनता है। देश का अगला चुनाव इन्हीं दोनों के बीच होना है। अब इस देश की जनता को तय करना है कि वह महागठबंधन को विकल्प के रूप में चुनती है या उस नेता और संगठन को चुनती है जो स्वयं को ही जनता कहता है और साथ पूंजीपतियों का देता है। जनता को यह भी तय करना है कि वह उस संगठन का साथ देगी जो हिंदुओं को उदार बताता है और उसे ही राष्ट्र बताता है जबकि हिंदुओं को कट्टर बनाने का कोई उपाय छोड़ता नहीं और राष्ट्र की एक संकीर्ण और कृत्रिम परिभाषा गढ़ने में लगा रहता है। या फिर संविधान के मूल्यों और जनता की विविधता को बचाने वाले संगठनों का साथ देगी।

 

महागठबंधन किसी केंद्रीय विचार को अपनाने में झिझक रहा है। फिर भी जब किसी प्रकार की राजनीतिक एकजुटता बनती है तो उसके दो लक्ष्य होते हैं। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। सकारात्मक लक्ष्य यह होता है कि देश और समाज के लिए कुछ विशेष करना है और उन मूल्यों का वहन करने वाले किसी विशेष व्यक्ति या पार्टी को सत्ता में लाना है। नकारात्मक उद्देश्य यह होता है कि किसी बुराई को मिटाना है, किसी से बदला लेना है और किसी को परास्त करना है। संभवतः देश में दूसरे उद्देश्य के लिए ज्यादा गठबंधन हुए हैं। वही स्थितियां इस बार भी दिख रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने व्यवहार को चाहे जितना बदलें लेकिन वह जुमलेबाजी और सत्ता के अहंकार से अलग नहीं हो पाएंगे।इस बात को उनके दुश्मन ही नहीं अपनी पार्टी के मित्र भी मानने लगे हैं। इसलिए जैसे ही राजग से सहयोगियों को अहसास होगा कि उनमें चुनाव जिताने का जादू खत्म हो रहा है वैसे ही वे उनसे किनारा करने लगेंगे। ऐसे में भले ही चुनाव से पहले महागठबंधन न बने लेकिन चुनाव के बाद जिस तरह से कमजोर भाजपा और कमजोर मोदी के उभरने की प्रबल संभावना दिख रही है वैसे में निश्चित मानिए कि इस देश को चलाने के लिए एक महागठबंधन बनेगा ही।