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प्राकृतिक संसाधनों की लूट का नाम है विकास

युवा संवाद - जनवरी 2019 अंक में प्रकाशित

भारत अब भी उन देशों की सूची में शामिल है, जहां आर्थिक विकास की दर ज्यादा बनी हुई। हम चीन से भी तेज गति से विकास कर रहे हैं। हम एक आर्थिक महाशक्ति हैं। कभी यह भी तो सोचना चाहिए कि पिछले 2-3 दशकों से हम जिन प्राकृ तिक संसाधनों का “वहशियाना ढंग से दोहन” कर रहे हैं, वह इस “विकास” के चलते अगले 35 से 45 सालों में लगभग खतम हो जाएगा, तब क्या करेंगे? क्या विकास का जीवन केवल मानवों की एक पीढ़ी के बराबर होना चाहिए? अब जरा इस बात पर गौर कीजिये कि हम जो विकास कर रहे हैं, यह तो तय है कि उसमें गरिमा और समानता तो नहीं ही है, किन्तु क्या उसमें आत्मनिर्भरता का एक भी अंश है? स्वतंत्रता के बाद देश के विकास के लिए सरकारों ने नीति का मार्ग अपनाया। विकास की नीति का मतलब होता है उपलब्ध संसाधनों (मानवीय-प्राकृतिक) का जिम्मेदार और जवाबदेय उपयोग करते हुए सम्मानजनक-गरिमामय और अपनी क्षमता का अधिकतम उपयोग करने की सामाजिक-आर्थिक-राजनीति स्थिति को हासिल करना, लेकिन क्या भारत ने ऐसी ही किसी सोच को अपनाया है? जवाब है - नहीं। वास्तव में अपने दैनिक जीवन की जरूरतों का विस्तार करते हुए हम इतना आगे बढ़ गए कि भारत को “कर्जे की अर्थव्यवस्था” को “विकास की अर्थव्यवस्था” के कपड़े पहनाना पड़ रहा है?

 

स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1950-51 में भारत की सरकार पर कुल 3059 करोड़ रुपये का कर्जा था। जानते हैं वर्ष 2017-18 के बजट के मुताबिक भारत सरकार पर कुल कितना कर्जा है? यह राशि है 74.38 लाख करोड़ रुपये, सरकार पर अपने बजट से साढ़े तीन गुना ज्यादा कर्जा है।

 

पिछले 66 सालों में भारत की सरकार पर जमे हुए कर्जे में 2431 गुने की वृद्धि हुई है। और यह लगातार बढ़ता गया है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि यह कर्ज आगे न बढ़े और इसका चुकतान भी किया जाना शुरू किया जाए। जिस स्तर पर यह राशि पहुंच गयी है, वहां से इसमें कमी लाने के लिए देश के लोगों को कांटे का ताज पहनना पड़ेगा। सवाल यह है कि जब इतनी बड़ी मात्रा में कर्जा बढ़ा है, तो क्या लोगों की जिंदगी में उतना ही सुधार आया?

 

आंकड़े तो ऐसा नहीं बताते हैं। भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 1950-51 में चालू कीमतों के आधार पर प्रतिव्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 274 रुपये थी। जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 93,231 रुपये हो गई। यह वृद्धि है 340 गुने की। क्या इसका मतलब यह है कि जितना कर्जा सरकारों ने लिया, उसने बहुत उत्पादक भूमिका नहीं निभाई है। सरकार का पक्ष है कि देश में अधोसंरचनात्मक ढांचे के विकास, परिवहन, औद्योगिकीकरण, स्वास्थ्य, कीमतों को स्थिर रखने और विकास-हितग्राहीमूलक योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए उसे कर्जा लेना पड़ता है।

 

“वृद्धि दर को विकास दर” मानने वाले नजरिए से यह तर्क ठीक हो सकता है, किन्तु जनकल्याणकारी और स्थायी विकास के नजरिए से इस तर्क की उम्र बहुत ज्यादा नहीं होती है क्योंकि कर्जा लेकर शुरू किया गया विकास एक दलदल की तरह होता है, जिसमें एक बार आप गलती से या अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए उतरते हैं, और फिर उसमें डूबते ही जाते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर कोई 6 से 8 प्रतिशत के बीच रहती है, किन्तु लोकऋण (केंद्र सरकार द्वारा लिए जाने वाला कर्ज) की वृद्धि दर 12 प्रतिशत प्रतिवर्ष है। यह बात दिखाती है कि एक तरफ तो प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है, वह समाज-मानवता के लिए दीर्घावधि के संकट  पैदा कर रहा है, उस पर भी उसका लाभ समाज और देश को नहीं हो रहा है। उस दोहन से देश के 100 बड़े घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं कि वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें। इसमें एक हद तक वे सफल भी रहे हैं।

 

इसका दूसरा पहलू यह है कि आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास होने का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज्यादा कर्जे लिए जा रहे हैं। हमें इस विरोधाभास को जल्दी से जल्दी समझना होगा और विकास की ऐसी परिभाषा गढ़ना होगी, जिसे समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्यकता न पड़े। लोगों का विकास होना है तो लोगों को अपने विकास की परिभाषा क्यों नहीं गढ़ने दी जाती है?

 

आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक फंसाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढ़ाती है, फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौते करवाती है, शर्तें रखती और समाज के संसाधनों पर एकाधिकार मांगती है। इसके बाद भी मंदी आती है और उस मंदी से निपटने के लिए और रियायतें मांगती है, तब तक राज्य और समाज इसमें इतना फंस चुका होता है कि वह बाजार की तमाम शर्तें मानने के लिए मजबूर हो जाता है क्योंकि तब तक उत्पादन, जमीन, बुनियादी सेवाओं से जुड़े क्षेत्रों पर निजी ताकतों का कब्जा हो चुका होता है।

 

पिछले 65 साल का आर्थिक नीतियों का अनुभव बताता है कि भारत की प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 340 गुना बढ़ी है, किन्तु लोक ऋण के ब्याज के भुगतान में 11349 गुना वृद्धि हुई है। कहीं न कहीं यह देखने की जरूरत है कि लोक ऋण का उपयोग संविधान के जनकल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को मजबूत करने के लिए हो  रहा है या नहीं? यह पहलू तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश में 3 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों और 20 करोड़ लोग हर रोज भूखे रहते हों।