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सीबीआई की साख पर बटा

युवा संवाद - नवंबर 2018 अंक में प्रकाशित

हो सकता है कि सीबीआई की लड़ाई मोदी सरकार की ताबूत में आखिरी कील साबित हो। इससे एक बात उजागर हो गई है कि यह सरकार संविधान के साथ साथ मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका, सीवीसी, सीएजी, चुनाव आयोग, सीबीआई और यूजीसी जैसी हर संस्था को तबाह करने पर तुली हुई है। जहाँ जितना मौका मिलता है वह उसका इस्तेमाल अगला चुनाव जीतने और अपने शासन को मजबूत करने के लिए करती है। उसे न्याय और कार्यकुशलता से कोई लेना देना नहीं है। उसका एक ही उद्देश्य है कि कैसे भाजपा और उसके समर्थकों को फायदा पहुंचाया जाए और अपने से असहमत संगठनों और व्यक्तियों को प्रताड़ित किया जाए। सरकार सीबीआई के भीतर भी वही काम करने में लगी थी और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की तरह ही वहां भी विद्रोह हो गया। अपनी हर करतूत को पिछली कांग्रेस सरकार पर डाल देने में उस्ताद है भाजपा। उसके तमाम प्रवक्ता जनता का ध्यान बंटाने में लगे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी ने नेशनल हेराल्ड अखबार के ट्रस्ट में पांच हजार करोड़ का घोटाला किया है और वे जमानत पर हैं।

 

लेकिन भाजपा के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि उन्होंने देश की एक प्रमुख जांच एजेंसी को क्यों राजनीतिक लड़ाई का मंच बना दिया। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बहाने सीवीसी और सीबीआई दोनों के पर कतर दिए हैं लेकिन देश साफ तौर पर दो खेमों में बंट गया है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहेते व सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को बचाने के लिए पूरी सरकार और पार्टी लगी हुई है तो दूसरी तरफ कांग्रेस और तमाम विपक्षी दल निदेशक आलोक वर्मा के साथ खड़े हो गए हैं। आलोक वर्मा भी इसी व्यवस्था के हिस्से हैं और उन्होंने इस सरकार के लिए कुछ किया होगा तभी उन्हें सीबीआई की निदेशक बनाया गया। लेकिन उन्होंने उतना नहीं किया था जितना करने के लिए वे लाए गए थे या जितने के लिए राकेश अस्थाना प्रसिद्ध हैं।

 

राकेश अस्थाना ने लालू यादव को चारा घोटाले में पहले गिरफ्तार किया और बाद में सजा दिलवाने में भूमिका निभाई, उन्होंने गोधरा कांड में नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दिलवाई और अब विजय माल्या की धोखाधड़ी और अगस्तावेस्टलैंड हेलीकाप्टर की खरीद में हुई गड़बड़ियों की जांच में लगे थे। राकेश अस्थाना सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी को सही साबित कर रहे थे कि सीबीआई पिजड़े में बंद तोता है और वह वही बोलता है जो उसका मालिक कहता है। इस बात को साबित करने में आलोक वर्मा थोड़ा पिछड़ रहे थे। आलोक वर्मा निदेशक हैं जिनकी नियुक्ति प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश ने की थी। उन्हें अपने विशेष निदेशक की नियुक्ति और फिर उनके कामकाज का तरीका पसंद नहीं आ रहा था।

वजह साफ थी कि वह अधिकारी अपने सीनियर से ज्यादा राजनीतिक आकाओं और पीएमओ के अधिकारियों के लिए वफादार था। राकेश अस्थाना के विरुद्ध स्टर्लिंग बायोटेक कंपनी की मनीलांडरिंग में शामिल होने का आरोप लगा था। उनके विरुद्ध एफआईआर नहीं था लेकिन कंपनी की डायरी में उनका नाम था। बाद में मीट निर्यातक मोइन कुरैशी के मामले की जांच करते समय राकेश अस्थाना पर तीन करोड़ रुपए रिश्वत लेने का आरोप लगा। उन पर एफआईआर दर्ज की गई और उनके डीएसपी देविंदर कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पहले राकेश अस्थाना ने आलोक कुमार के विरुद्ध केंद्रीय सतर्कता आयोग को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि मोइन कुरैशी के मामले में ही उन्होंने दो करोड़ की रिश्वत ली थी। उन्होंने वह पत्र कैबिनेट सचिव को भी दिया था। यह सारा नाटक छह माह से चल रहा था लेकिन खामोश सरकार तब हरकत में आई जब राकेश अस्थाना की गिरफ्तारी की  नौबत आ गई और उनके डीएसपी को पकड़ लिया गया।

 

निदेशक आलोक कुमार का तो कहना है कि सरकार ने सीबीआई के दफ्तर को आधी रात को सील करने का फैसला इसलिए किया क्योंकि वे एक अहम जांच करने की तैयारी में थे। यह बात आलोक कुमार ने सुप्रीम कोर्ट में कही है। सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी की जांच एक रिटायर जज पटनायक की निगरानी में करने का आदेश दिया है। साथ ही बहुत जूनियर स्तर से कार्यवाहक निदेशक बनाए गए नागेश्वर राव को कोई भी नीतिगत फैसला लेने से रोक दिया है। उन्हें अपने सारे निर्णयों की जानकारी अदालत को देने को कहा है। नागेश्वर राव पर न सिर्फ रिश्वतखोरी के आरोप हैं बल्कि वे तमाम हिंदुत्ववादी संगठनों के लिए काम भी करते रहे हैं। जाहिर है सीबीआई की इस छवि को ठीक करने का तरीका पैबंद लगाना नहीं है। उसे लोकपाल के तहत लाकर स्वायत्तता देनी ही होगी। यह सब कैसे होगा और कौन करेगा इस बारे में कुछ निश्चिंत होकर कहा नहीं जा सकता, क्योंकि कांग्रेस भी सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल करती रही है और इस संस्था को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

 

फिलहाल सीबीआई की मौजूदा छीछालेदर से विपक्ष ने राहत की सांस ली है। देखना है भ्रष्टाचार मिटाने, अच्छे दिन लाने और सबका विकास करने के नाम पर सत्ता में आई इस सरकार का बदले का अगला कदम क्या होता है और इस देश की संवैधानिक संस्थाएं उसमें कौन सी भूमिका निभाती हैं।