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विमुद्रीकरण या सोची समझी चाल?
युवा संवाद -दिसंबर 2016 अंक में प्रकाशित
भारत के विकास के एक गहरे नासूर, काली या कलुषित अर्थव्यवस्था को जोरदार तरीके से कम करने की दिशा में एक बड़ा कदम अचानक उठाया गया है। देश की आमदनी, संपदा और अन्य संसाधनों पर गैर कानूनी तौर-तरीकों से देश के धनी, सत्ताधारी और प्रसिद्ध लोगों के एक बड़े वर्ग ने कब्जा जमा लिया है। इन गै़रकानूनी सफेदपोश कामों के फलस्वरूप और इन्हें चलाने के संसाधन के रूप में प्रचलित मुद्रा के पांच सौ और एक हजार रुपए के नोटों का एक बड़ा भंडार हमारी व्यवस्था के सिरमौर लोगों ने जमा कर रखा है जो लगातार उनके हाथ में आता-जाता रहता है। हमारी राष्ट्रीय आय के 12 प्रतिशत के आकार की कुल करेंसी का 80 प्रतिशत से ज्यादा भाग इन बड़े नोटों के रूप में प्रचलन में है। इन बड़े नोटों को अर्थव्यवस्था में प्रतिस्थापन करके यह उम्मीद की जा रही है कि एक और अवैध आमदमी और संपत्ति का एक बड़ा भाग नष्ट होगा तथा आगे के प्रसार के लिए नहीं मिल पाएगा।
काश दो हजार रुपए का नोट जारी नहीं किया जाता। इसे लागू करने के लिए जिनके पास सही तरीकों से प्राप्त मुद्रा है अथवा जिनकी नकदी को गैरकानूनी साबित नहीं किया जा सकता, उनके लिए उतनी मात्रा में पांच सौ और दो हजार रुपए के नए नोट बदले जा रहे हैं। यह एक बड़ा और हर किसी को छूने वाला कदम है। एकमुश्त 86 प्रतिशत करेंसी को रद्द करके उनकी जगह नई करेंसी का प्रचलन सचमुच एक हिमालयी चुनौती है। खासतौर से गैरबराबरी से भरी विशाल अर्थव्यवस्था में यह एक बहुत बड़ा बदलाव होगा। इसमें सबकी स्थिति, जरूरतों और क्षमताओं को ध्यान में रखना होगा। सनद रहे काली अर्थव्यवस्था में एक ओर उसके कर्त्ता-धर्त्ता, निर्णायकों या प्रभावशाली किंतु ज्यादातर दूषित, असामाजिक जनविरोधी कुकृत्यों में लिप्त लोग हैं। दूसरी ओर, कमजोर, दुष्प्रभावग्रस्त, काली या श्याम-श्वेत संकर राजनीतिक आर्थिकी के शिकार असंख्य लोग हैं। हमारे इन बहुसंख्यक लोगों पर दो नंबरी काली-गोरी व्यवस्था द्वारा आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय, मौद्रिक बोझ डाला जाता रहा है। दूसरे छोर पर इन विद्यमान प्रक्रियाओं द्वारा भरपेटे, संपन्न शक्तिशाली तबकों को हर प्रकार से अधिकाधिक मालामाल किया जा रहा है।
एक सौ रुपयों से कम और उनसे ज्यादा नोटों का 14ः86 का अनुपात अपने आप में भारत में बढ़ती गैर-बराबरी के प्रतिकूल समावेशन का नतीजा तथा अन्याय तथा शोषण को प्रतिबिंबित करती, बढ़ावा देती, अमानवीय, असभ्य विलासिता और लोकतां़ित्रक राजनीति के धनतंत्र और याराना पूंजीवादी रूपांतरण की द्योतक है। इस नए मौद्रिक परिवर्तन को लागू करने में एक ओर धनी लोगों की सुविधा का
जरूरत से ज्यादा ध्यान रखा गया है, जैसे ऊंची क्लास की रेल रिजर्वेशन और हवाई यात्रा आरक्षण की सुविधा और 7 तारीख को वेतन बांटने के बाद नोटबंदी। इससे बचने के अनेक छल-छिद्रों से भरी है यह स्कीम। दूसरी ओर, दिहाड़ी, कच्ची नौकरी और नकद में सारा काम करने वालों, खासतौर पर जिनकों 7 या 8 तारीख को नकद मजदूरी स्वरूप वेतन मिलता है, तथा रोजाना कुंआ खोदकर पानी पीने वालों को अनावश्यक, संवेदनहीन कष्ट का शिकार बनाया गया है। गेहूं के साथ घुन को पीसना लोकतांत्रिक निजाम का लक्षण नहीं हो सकता है। यह तो धनतंत्र का दुष्परिणाम होता है। फिर नोटों का बड़ा आकार, दो हजार रुपए के नोट का प्रचलन (जिसके बदले 500 के नोट को दूसरे रंग में जारी करना ज्यादा असरदार होता) 25 करोड़ जनधन खातों में अवैध बेनामी धन का संभावित प्रवेश आदि काली अर्थव्यवस्था में लिप्त पुराने पापियों द्वारा अपनाए जाने वाले अनुमान योग्य हथकंड़ों को पहले से, घोषित तरीकों से रोकने की तजबीजों का इस स्कीम से नदारद होना, इस निर्णय के लिये अनुपयुक्त तारीख का चयन, बैंकों के अफसरों द्वारा इन अवैध हथकंड़ों में भागीदारी, आदि को पहले से रोकने, पकड़ने के उपायों का अभाव आदि इस अपने आप में सही प्रयास को पर्याप्त तथा प्रभावी जमीनी हकीकत में बदलने से रोकेंगे।
वास्तव में काली अर्थव्यवस्था महज कर-चोरी, कर-बचाव और उसके विदेशों में छद्म प्रवाह से कहीं ज्यादा व्यापक, बहुमुखी राजरोग है। यह अब अपने लंबे लगातार बढ़ते अस्तित्त्व के कारण हमारी संपूर्ण व्यवस्था के हर अंग में फैला नासूर है। यह है खासतौर पर बड़ी आमजन से संग्रहित काॅरपोरेट अर्थ वित्त व्यवस्था, राजनीति, राजनीतिक दलों राजकीय आर्थिक वित्तीय व्यवस्था, अपराध जगत और प्रशासन का साझे, शुद्र सीमित स्वार्थों के लिए जनहित और राष्ट्रहित और राष्ट्रीय सभ्यता की गहन विकृति और विदू्रपीकरण। फिर भी यह एक बड़ा, साहसिक, दूरगामी और अभूतपूर्व कदम है। अभी भी वक्त है इसकी गंभीर जन्मजात खामियों को ठीक करने का। सारे समाज को इस बड़े, व्यापक कदम को सफल बनाने के लिये सक्रिय होने का वक्त है। नागरी समाज आए और इस स्कीम को सचमुच भारतीय सामाजिक जीवन के मानवीय मूल्य
आधारित शुद्धीकरण, नवीनीकरण करे। किंतु इस स्कीम द्वारा अलादीन के चिराग से एक जिन्न बाहर निकाल दिया गया है। काले धन के व्यापक और सर्वत्र फैलाव का असर कई गंभीर रूपों में सन् 2016 के विमुद्रीकरण पर साफ दिखाई देता है - मानो यह किसी बड़ी सोची-समझी चालबाजी का बाहरी सजा-सजाया चेहरा हो। आने वाले कुछ महीनों में दिखाई देगा कि ऊंट किस करवट बैठता है।
(कमल नयन काबरा)