www.yuvasamvad.org

CURRENT ISSUE | ARCHIVE | SUBSCRIBE | ADVERTISE | CONTACT

सम्पादकीय एवं प्रबन्ध कार्यालय

167 ए/जी.एच-2

पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063

फोन - + 91- 7303608800

ई-मेल – ysamvad[~at] gmail.com

मुख्य पृष्ठ  *  पिछले संस्करण  *  परिचय  *  संपादक की पसंद

सदस्यता लें  *  आपके सुझाव

मुख्य पृष्ठ  *  पिछले संस्करण  *  परिचय  *  संपादक की पसंद  *  सदस्यता लें  *  आपके सुझाव

रोहित वेमुला के सवाल

युवा संवाद - फरवरी 2016 अंक में प्रकाशित

रोहित वेमुला की आत्महत्या और उसके बाद उठी गुस्से की लहर, क्या देश के अंबेडकरवादियों की बीच चल रही एक नई बहस का परिणाम है? क्या यह परिघटना दिखाती है कि वामपंथी घेरे में दलित विमर्श अपनी जगह बना रहा है? इस घटना के बाद जिस पैमाने पर दलित आगे आए और सचेत सवर्ण तबकों की जैसी सकारात्मक प्रतिक्रिया रही, उसमें एक नए जातिविहीन भारत के निर्माण के बीज छिपे हुए हैं। इससे ये भी पता चलता है कि नव उदारवादी नीतियों के कठोर हमले के बाद देश में आंबेडकरवादियों के रुख में परिवर्तन आया है, उसमें भी आगे का रास्ता  तलाशने की ललक पैदा हुई है- आरक्षण और सत्ता में हिस्सेदारी से बढ़कर पेरियार, फुले और आंबेडकर की परंपरा में एक समतावादी समाज निर्माण की आकांक्षा दिखती हैं। दूसरी तरफ आंबेडकर द्वारा उठाए गए जाति विहीन समाज बनाने के विचार की वामपंथियों में एक स्वीकार्यता भी दिखने लगी है। इन नव उदारवादी नीतियों की चाकर राष्ट्रीय सरकारों ने, जिसमें कांग्रेस से लेकर भाजपा सरकारें तक शामिल हैं, इस गैरबराबरी को सुलझाने की बजाय उनका इस्तेमाल ही किया है।

 

आंबेडकरवादी और माक्र्सवादी, दोनों धाराओं का स्वाभाविक लक्ष्य एक ही है- समतावादी समाज बनाना। अतीत की गलतियों से सबक लेकर दोनों खेमा धीरे धीरे आगे बढ़ रहा है, धीरे धीरे एक जमीन तैयार हो रही है। पिछले साढ़े छह दशकों में दलितों की एक नई पीढ़ी पैदा हुई है, जिसमें जाति मुक्ति का बोध गहरा हुआ है, वो मेधावी है, साहसी है और उसे अब आरक्षण से बढ़कर समानता का अधिकार चाहिए। धीरे धीरे समानता का मुद्दा उनके संघर्ष का केंद्र बिंदु बनता जा रहा है। जिसे अस्मिता की राजनीति और वर्गीय एकता में बंटवारे का कारक मानकर भारतीय वामपंथी भी दूर दूर रहते आए हैं, उन्हें भी भारतीय समाज की इस सच्चाई का अहसास होने लगा है और इस बात पर भी मंथन शुरू हो गया है कि सारतः आंबेडकर जनपक्षधर विचारक और नेता थे। वामपंथी पार्टियों में दलित नेतृत्व के संयोजन पर बात उठने लगी है, साथ ही जाति के प्रश्नों को गंभीर होने की बात आगे बढ़ चली है। लेकिन ये सब हुआ है इनके जनाधार में बगावत होने से। ये एक सांस्कृतिक प्रश्न है, जिसे बहुत ही सतही तौर पर छूने की कोशिश की जाती रही है, पर अब इन कोशिशों के उथलेपन की कलई उघड़ चुकी है। हालांकि वापमंथी घेरे से आ रहे प्रतिरोध के स्वर को लेकर अभी भी एक शंका बनी हुई है कि केंद्र में भाजपा सरकार के होने की वजह से ये माहौल बना है और शायद इसके ठंडा होने पर पहले जैसी स्थिति हो जाएगी! लेकिन लगभग सभी लोग इस बात पर समहमत दिखे कि निर्भया कांड से अलग रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजे रोष की बुनियादी विशेषताएं बिल्कुल अलग हैं और पिछले कुछ सालों से दलित मुद्दे पर हो रहे मंथन की निरंतरता में ही हैं। अंतराधार के रूप में ये अभिलाक्षिणकताएं बनी रहेंगी और आगे बढ़ती रहेंगी। इस परिघटना का एक दूसरा पहलू है कि संघ की विचारधारा चाहे जितनी कोशिश कर ले अंबेडकर और दलित आबादी को हजम कर पाना उनके लिए किसी कीमत पर संभव नहीं है। आंबेडकरवाद का सार ही उनके

लिए प्राणघातक है। इस परिघटना ने इसे और पुष्ट कर दिया है। अब जातिविहीन समाज का मुद्दा केंद्र में आ रहा है। यह घटना सचेत हो जाने की चेतावनी है। चुप्पी तोड़ने का अलार्म है। पढि़ये आत्महत्या से पहले रोहित ने क्या लिखा.....

 

..... मैं विज्ञान, तारों, प्रकृति से बहुत प्यार करता था लेकिन इसके बाद मैंने लोगों से प्यार करना शुरु किया, बिना ये जाने कि लोगों ने प्रकृति से बहुत पहले ही तलाक ले लिया है। हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हैं। हमारा प्रेम बनावटी है, हमारी मान्यताएं झूठी हैं, हमारी मौलिकता वैध है बस कृत्रिम कला के जरिए यह बेहद कठिन हो गया है कि हम प्रेम करें और दुखी न हों। इंसान की उपयोगिता उसकी तत्कालीन पहचान तक सिमट कर रह गयी है और उसे नजदीकी संभावना तक ही सीमित कर दिया गया है। एक वोट तक, एक आदमी महज एक आंकड़ा बन गया है, महज एक वस्तु, आदमी को कभी भी उसके दिमाग के हिसाब से नहीं आंका गया। ..... मैं इस तरह का पत्र पहली बार लिख रहा हूं। ‘‘पहली बार मैं आखिरी पत्र लिख रहा हूं’’, मुझे माफ कर दीजिएगा अगर मेरी बातों का कोई मतलब नहीं निकले। ‘‘मेरा जन्म एक घातक हादसा था, मैं अपने बचपन के अकेलेपन से कभी भी बाहर नहीं निकल सका’’, ..... इस समय मैं आहत नहीं हूं, मैं दुखी नहीं हूं, मैं सिर्फ खाली हूं। अपने बारे में बिल्कुल उदासीन। यह दयनीय है और इसलिए मैं ऐसा कर रहा हूं। लोग मुझे कायर कह सकते हैं, स्वार्थी

या पागल कह सकते हैं जब मैं चला जाउं तो। लेकिन इस बात को लेकर मैं बिल्कुल भी चिंतित नहीं हूं कि लोग मेरे जाने के बाद मुझे क्या कहेंगे। मैं मृत्यु के बाद की कहानियों में विश्वास नहीं करता, भूत और आत्मा। अगर कुछ भी ऐसा है जिस पर मैं भरोसा करता हूं, वह है कि मैं सितारों की सैर करुंगा और दूसरी दुनिया के बारे में जानुंगा। ..... अगर आप जो इस पत्र को पढ़ रहे हैं मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं तो मुझे 7 महीने की फेलोशिप मिलनी है एक लाख पचहत्तर हजार रुपए। कृपया इसे देखें और इसे मेरे परिवार को दिलवा दें। मुझे रामजी को भी 40 हजार रुपए देने हैं। उसने कभी इस पैसे को वापस नहीं मांगा लेकिन कृपया उसे ये जरूर फेलोशिप के पैसों में से दे दें। मेरे अंतिम संस्कार को शांतिपूर्वक होने दें। ऐसा व्यवहार करें जैसे मैं आया और चला गया। मेरे लिए आंसूं नहीं बहाएं। इस बात को समझने की कोशिश करिए कि मैं जीने

से ज्यादा मरने में खुश हूं।

 

संपादकीय