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उग्र हिंदुत्व के एजेंडे में फंसा दलित

युवा संवाद -  फरवरी 2017 अंक में प्रकाशित

यह सच है कि सन 1931 के बाद, जनगणना में गैर-अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति जाति समूहों के जाति के आकड़े जमा नहीं किये गए। इसी लिए मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी आबादी 52% होने का अनुमान लगाया। लेकिन मंडल आयोग के इस आकलन पर बहुत से सवाल उठे इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह था कि ‘अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, मुसलमानों और अन्य की संख्या को कम करके फिर एक संख्या पर पहुंचने पर आधारित यह एक कल्पित रचना है।’ चाहे जो हो पर यह मानना पड़ेगा की देश में पिछड़ों की आबादी सभी वर्गों से ज्यादा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 1999-2000 (एनएसएस 99-00) चक्र के अनुसार देश की आबादी में पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 36 प्रतिशत थी। मुसलमान ओबीसी को हटा देने से अनुपात 36% पर ठहरता है कि भारतीय समाज में पिछड़े समाज की कितनी बड़ी हिस्सेदारी है।

 

मंडल कमीशन की रिपोर्ट यह कहती है कि ‘1952 का जमीदारी उन्मूलन ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पूर्णतः अस्तव्यस्त नहीं किया। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूतों का गांवो के शक्ति के ढांचे और व्यवस्था पर अब भी काफी प्रभाव है। पिछड़ी और दलित जातियां अपने अधिकारों या अपने हक के लिए उच्च वर्णों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए तैयार होतीं उससे पहले उनके सामने मुस्लिमों को खतरा के रूप में पेश किया जा चुका था। दलित, पिछड़े अपने हक और हुकुक की लड़ाई को याद भी न कर पाएं इसके लिए उन्हें डराना जरूरी है, और यह डर पैदा किया जा सकता है मुसलमानों को सामने रखकर। संसाधनों पर कब्जा जमाए मुट्ठी भर लोग अपने इस वर्चस्व को टूटने से बचाने के लिए बार बार मुसलमानों को सामने करके सवर्ण और अवर्ण के बीच संसाधनों की समुचित भागीदारी के संघर्ष को तथाकथित हिंदुत्व के नाम पर दबाते रहे हैं।

 

आज कट्टर हिंदुत्व के तथाकथित ठेकेदार न सिर्फ सवर्ण जातियां हैं बल्कि ब्रामणवाद की ब्रेनवास की शिकार ओबीसी जातियों के लोग भी शामिल हैं। हिंदू धर्म का मूल चरित्र ही दलित विरोधी है, इसीलिए हिंदुत्व के पैरोपकार पिछड़ी जाति के लोग भी दलित विरोधी हो गए। इसका मूल चरित्र उत्तर प्रदेश में साफ देखा जा सकता है। दलित का जीवन पशुओं से बदतर तब भी था और आज भी है। गाय का मामला पूरी तरह राजनीतिक है। वर्ण व्यवस्था के प्रकर्म में भयानक रूप से बंटे हिंदू समाज में दलित बहुत साजिश के साथ शामिल किए गए तो भी उन्हे हाशिये पर रख दिया गया।जब बार बार हिंदू समुदाय के शोषित जातियों को लगता कि हिंदू समाज में हमारा कोई आस्तित्व नहीं है तो वह अन्य धर्मों कि तरफ ताक झांक करने लगता। तो सभी को हिंदू समाज में बनाए रखने के लिए ब्राह्मणवादी ताकतों ने एक साजिश रची वह यह थी कि किसी तरह इस्लाम के प्रभुत्व का डर पैदा कर इन असंतुष्ट शोषित जातियों को अपने साथ बनाए रखा जाय। इसके बाद शुरू हुआ मुसलमानों के खिलाफ नफरत और जहर का दौर जिसमें उन प्रतीकों को को चुना गया जिसके प्रयोग से मुस्लिम समाज में कुछ नाराजगी हो विरोध हो... वंदे मातरम,... भारत माता की जय ...गीता... से होते हुए यह खतरनाक प्रतीकों की राजनीति गाय तक पहुंची। गाय वह सबसे खतरनाक

राजनीतिक प्रतीक थी जिससे मुस्लिम समाज के खिलाफ हिंदुओं की गोलबंदी हो सकती थी। इस दौर में एखलाख इसी प्रतीकों की राजनीति का शिकार हुआ।

 

पिछड़ी जातियों का राजनीतिकरण सामंती तरीके से ही हुआ है। फुले, पेरियार, अंबेडकर के विचारों को जान बूझकर ब्लॉक किया गया, क्योंकि अगर ये विचार दलित पिछड़ों के बीच फैल गए होते तो दलित पिछड़ा अपने आस्तित्व और अस्मिता की पहचान करते हुए हिंदुत्व के खूंखार इरादों को खारिज कर देता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं यही कारण है कि आर्थिक रूप से मजबूत होने वाली पिछड़ी जातियां सवर्ण जातियों के सामंतों की तरह सामंती प्रवृत्ति की होती गईं और पिछड़ी जातियों के अधिकांश लोग आर्थिक रूप मजबूत होकर गांवों में नवसामंत की भूमिका निभाने लगे। आजादी के बाद पिछड़े वर्ग से संत कहे जाने वाले बहुत से बाबाओं का आविर्भाव हुआ। दरअसल ये बाबा पुरोहितवाद का नया मसीहाई रूप में पिछड़ी जनता के सामने आए। पिछड़े वर्ग से डिक्लास हो चुके इन बाबाओं ने धर्म में गहरे रूप धंसी जनता को और अधिक धार्मिक बनाया, जिसका फायदा हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टियों और संगठनो ने भरपूर उठाया। इन बाबाओं ने फुले, पेरियार, अंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों का गला घोटते हुए, पूरे प्रदेश में सांस्कृतिक आंदोलन को लगभग खत्म कर दिया। धर्म भावना की चीज है तर्क की नहीं जैसे जुमले उछालकर जनता को लगातार अंधविश्वास में धकेला गया। तर्क और सोचने की शक्ति क्षीण हुई इसी कारण मानसिक गुलामी के खिलाफ चलने वाला सांस्कृतिक आंदोलन बुरी तरह फेल हो गया।

 

रजनी कोठारी ने कहा था कि ‘जिसे राजनीति में जातिवाद कहा जाता है वह मूलतः जातियों का राजनीतिकरण है।’ सबसे ज्यादा ‘जातिवादी राजनीति’ का रोना रोने वाले लोग यह कभी नहीं चाहते थे कि जातियों का राजनीतिकरण हो क्योंकि जब जातियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ था उस दौर में पिछड़े और दलितों के 300 घरों वाले गांव में सिर्फ एक घर सवर्ण कितनी बार मुखिया बनता रहा। यही स्थिति कमोवेश एमपी और एमएलए के चुनावों में भी रहती थी। यह ध्यान रहे जातियों के राजनीतिकरण ने ही मुट्ठी भर वर्चस्वशाली जातियों के एकाधिकार को तोड़ा और इस लोकतंत्र में आम जनता की सक्रिय भागीदारी हुई। भारत में 80 से 90% सवर्ण अपनी दोनों सवर्णवादी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा से जुड़े रहे/जुड़े हैं। राजनीति में जातिवाद तब तक नहीं था जब तक दलित पिछड़ों की राजनीतिक हिस्सेदारी नहीं थी। पर जैसे ही दलित पिछड़ो में राजनीतिक समझदारी आई उन्होंने इस देश की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई वैसे ही एक नया मुहावारा वर्चस्वशाली समूहों ने उछाला ‘जातिवादी राजनीति’ यह मुहावरा मीडिया में बैठे उन तमाम सवर्ण जनों का है जिन्हे जातिवार जनगणना से जातिवाद बढ़ने का सातिराना खतरा नजर आता है। यह मुहावरा उन्हीं सवर्ण जन मीडिया वालों का है जिन्हे 90% सवर्ण वोट लेकर लोकसभा चुनाव जीतने वाली भाजपा जातिवादी पार्टी नजर नहीं आती।