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थम गई आदिवासियों व वंचितों की एक आवाज

युवा संवाद - जनवरी 2016 अंक में प्रकाशित

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा (86 वर्ष) का विगत 6 दिसबंर 2015 को मध्यप्रदेश के ग्वालियर में निधन हो गया। वह पिछले कुछ समय से बीमार थे।डॉ. बी.डी. शर्मा ने अपने जीवन के पांच दशकों तक आदिवासियों, दलितों, कामगारों व किसानों को उनके संवैधानिक अधिकार दिलवाने के लिए अथक व निरंतर संघर्ष किया। उनका प्रशासनिक जीवन अशांत बस्तर (सन् 1968) से शुरु हुआ और इसकी परिणिति आयुक्त, अनुसूचित जाति- जनजाति आयोग (सन् 1986 से 1991) में हुई। वे नार्थईस्ट हिल्स सेंट्रल युनिवर्सिटी के उपकुलपति रहे एवं योजना आयोग तथा राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की ढेर सारी समितियों के सदस्य भी रहे।

 

वे स्व. एस.आर. संकरन एवं बी.एन. युगांधर के समकालीन नौकरशाह थे। ये तीनों आम जनता के साथ उसी तरह खड़े हुए थे जैसा कि एक सरकारी कर्मचारी को होना चाहिए। अनुसूचित जाति/जनजाति आयुक्त के नाते उन्होंने न केवल इनके सशक्तिकरण को लेकर प्रारंभिक रिपोर्ट लिखी बल्कि उन्होंने भूरिया समिति रिपोर्ट को लिखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा पेसा एवं वन अधिकार अधिनियम लागू कराने में भी उन्होंने सक्रिय भागीदारी की थी। आदिवासी मामलों के मंत्रालय के सचिव के नाते उन्होंने आदिवासी उपयोजना की शुरूआत भी की। सन् 2014 तक वे सरकार को विभिन्न आदिवासी योजनाओं के क्रियान्वयन मंे मदद करने के साथ ही साथ सरकार द्वारा आदिवासियों के साथ की जा रही वादाखिलाफी, अनेक योजनाओं का क्रियान्वयन न होना और अनुसूचित क्षेत्रों में शासन की असफलता, अर्थात् प्रत्येक मोर्चे पर सरकार को चुनौती भी देते रहे।

 

वे आदिवासी क्षेत्रों की अशांत एवं युद्ध सदृश्य स्थितियों को लेकर अत्यंत विचलित थे एवं 17 मई 2010 को उन्होंने राष्ट्रपति को लिखा था, ‘‘आदिवासी लोगों के इतिहास के इस गंभीर मोड़ पर मैं राज्य से यह कहने के लिए बाध्य हो गया हूँ कि केंद्र सरकार स्थितियों को जिसमें कि सन् 1960 के दशक में यहाँ वहाँ छोटे मोटे विद्रोह से वर्तमान में युद्ध जैसी परिस्थितियों में परिवर्तित कर देने के लिए उत्तरदायी है। ऐसा उसके द्वारा अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से मुँह चुराने के कारण हो रहा है। वह (अदिवासी) संविधान को अपनाए जाने के दिन से ही अंदर ही अंदर खदबदाते अंसतोष केा लेकर उदासीन हैं। पिछले 60 वर्षों में उसने किसी भी राज्य को एक भी निर्देश नहीं दिया है। इस गंभीर समय में आप राष्ट्र प्रमुख होने के नाते यह सुनिश्चित करें कि केंद्र सरकार सुस्पष्ट तौर पर अर्धमृत, अंदर ही अंदर खौलते एवं वंचित आदिवासियों से क्षमायाचना करते हुए अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को स्पष्ट रूप से स्वीकारे, जिनके द्वारा भुगती गई अनपलट शारीरिक, आर्थिक एवं भावनात्मक वेदना हमारे देश जो कि अभी भी समानता और न्याय के पक्ष में खड़ा है के उजले माथे पर कभी न मिट सकने वाला दाग है।‘‘

वह ग्रामसभा जो कि संविधान के अनुसार अनिवार्य है, के माध्यम से ‘‘स्वराज्य‘‘ के क्रियान्वयन और लोगों के अधिकारों के लिए हमेशा खड़े रहे। साथ ही उनका पूरा जोर ‘‘हमारे गांव में हमारा राज‘‘ पर रहा। डा. शर्मा महान दृष्टा थे एवं सरकार द्वारा नए उदारवादी सुधारों के लागू किए जाने से समाज में बढ़ रही असमानता को लेकर अत्यंत व्यथित थे। उन्होंने उन्हें उपलब्ध संसाधनांे की सीमा के बावजूद सरकार पर कानूनों, योजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु दबाव बनाने के लिए अथक कार्य किया। परंतु वे जानते थे कि वास्तविक ‘‘स्वराज‘‘ तभी आएगा जब लोग स्वयं एकजुट होंगे और इसके लिए संघर्ष करेंगे, साथ ही लोगों का अपने जीवन, जीविका के साधनों, प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होगा एवं विकास में उनकी भूमिका हो एवं वे विकास की प्रक्रिया के लाभार्थी बन सकें। उन्होंने भारत जन आंदोलन की स्थापना की एवं किसान प्रतिष्ठा मंच, केम्पेन फाॅर सर्वाइवल एण्ड डिगनिटी जैसे तमाम जन संघर्षों एवं आंदोलनों को अपनी आवाज एवं सहयोग  प्रदान किया।‘

 

उन्होंने देश का सघन भ्रमण किया और किसानों और मजदूरों की आपदाओं के समाधान पर अपने विचार सामने रखे। वह उनके अधिकारों के लिए लगातार पैरवी करते रहे और निरंतर इस तथ्य पर जोर देते रहे कि हम कृषि संकट की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। साथ ही उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किसानों और मजदूरों को उतना नहीं मिल पा रहा है जितने के वे हकदार हैं। वह अपने आस पास इकट्ठा लोगों से अक्सर पूछा करते थे कि ‘‘बता मेरे यार, मेरी मेहनत का मोल है क्या ?‘‘

 

उन्होंने बहुत कुछ लिखा और सहयोग कुटीर प्रकाशन (ट्रस्ट) के माध्यम से उसे प्रकाशित भी किया। उन्होंने कई वर्षों तक हस्त लिखित ‘भूमकाल‘ पत्रिका का प्रकाशन भी किया। वे अत्यंत मितव्ययता से जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने सहजता से पूरे देश का भ्रमण किया। खादी का धोती-कुर्ता पहने वह हमेशा सबकी पहुँच में रहते थे। उन्हें वंचितो से लगाव था और उनकी बेहतरी के लिए उनका जीवन साहसपूर्ण संघर्ष एवं समर्पण के लिए हमेशा याद रखा जाएगा। उनकी मृत्यु से जनसंघर्ष में लगे सभी साथियों ने अपना महान साथी और शिक्षक को खोया है। संकट और संघर्ष के समय वह हमेशा याद आएंगे।

संपादकीय