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मदारी के तमाशे में अटका लोकतंत्र

युवा संवाद - जुलाई 2016 अंक में प्रकाशित

केन्द्र की भाजपा सरकार ने अपने दो साल पूरे कर लिए हैं और उसकी कार्यशैली ने साफ दर्शा दिया है कि भारत में गरीबों और वंचितों के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। परंतु परेशानी यह है कि गरीबों के पास तो कहीं और जाने का ठौर भी नहीं है। उच्च व मध्य आय वर्ग तो अपने बच्चों को ‘यू एस’ आदि देशों में भेजकर निश्चित हो रहा है लेकिन बाकी लोग क्या करें? ऐसे में यदि उन्हें अपने पैतृक घरों और व्यवसायों से भी बेदखल कर दिया जाएगा तो वे क्या करेंगे। हम जिस भयानक प्रचार युग में रह रहे हैं उसमें सब तरफ हरा ही हरा नजर आ रहा है, परंतु स्थिति एकदम विपरीत है। कबीर ने क्या खूब कहा है,

 

ओ नई आई बादरी, बरसन लगा अंगार।

उठ्ठि कबीर धाह दे, दाझत है संसार।

 

कबीर कहते हैं, बादल घिर आए, तो लोगों ने सोचा पानी बरसेगा। तपन मिटेगी, प्यास बुझेगी, पृथ्वी सजल होगी, जीवन का दाह मिट जाएगा। किंतु हुआ उल्टा। यह दूसरे तरह के बादल हैं, इनसे पानी की बूंदें नहीं अंगारे बरस रहे हैं, संसार जल रहा है। ऐसे में कबीर इस छल-बदल से संसार को बचाने के लिए बेचैन हो उठे हैं। परंतु हम तो सत्ता परिवर्तन के बाद एक ऐसा माहौल देख रहे हैं, जिसमें बोलने, लिखने व विचारों की अभिव्यक्ति को समाप्त कर देने का बीड़ा उठा लिया गया है। इसका नवीनतम उदाहरण छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार है। माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में नए बुद्धिजीवियों के समूह पर अब राष्ट्रद्रोह लगाने की तैयारियां चल रही हैं। गौर करिए कभी कंेद्र व राज्य दोनों में ऐसे दल की सरकारें राज कर रही हैं, जिन्होंने आपातकाल को भुगता है व उसकी तीव्र आलोचक रही हैं। इससे निपटने के लिए वह अपना अस्तित्व छोड़कर जनता पार्टी का हिस्सा बनी थी, और इंदिरा गांधी की घनघोर आलोचक थी। परंतु आज वह उनकी सबसे बड़ी प्रशंसक बनती नजर आ रही है। अरुणाचल व उत्तराखंड की राजनीतिक घटनाएं इसका जीवंत प्रमाण हैं। धीरे-धीरे भारतीय लोकतंत्र से जनता का सामना करने का भय समाप्त होता जा रहा है। इसकी बड़ी वजह है, भारतीय नागरिकों का अपने राजनीतिक वातावरण से बढ़ता अलगाव। आज तो लगने लगा है कि दुर्बल की हाय ने भी असर करना बंद कर दिया है। ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि सताने वाले की चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि उस पर अब किसी बात का असर नहीं होता और हमारा मीडिया भी दुर्बल की बात को उठाने को तैयार नहीं है। सब अपने-अपने में मस्त और व्यस्त हैं। कोई किसी दूसरे की ओर नहीं देख रहा। वैसे भी संचार एवं संवाद के नए माध्यमों में आंख उठाकर देखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। आंख स्क्रीन पर गड़ाकर सारा जीवन काटा जा रहा है। इस बीच गरीबों का अपना एक अलग संसार बनता जा रहा है और वे लगातार एक ओर ढकेले जा रहे हैं। सरकार की तमाम योजनाएं जैसे धन-जन, बीमा या स्वच्छता अभियान रोजगार दिलवा ही नहीं पा रहे हैं। मेक इन इंडिया की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। शर्म तो तब आती है जबकि अकाल पड़ जाने के आठ महीने के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में राज्य के मुख्यमंत्री व देश के प्रधानमंत्री इस विकराल संपदा का संज्ञान लेते हैं। न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही मनरेगा का धन जारी होता है।

 

 

 

 

इस सबके बीच बढ़ती आर्थिक असमानता भयावहता की श्रेणी में पहुंच गई है। इसके परिणामस्वरूप विश्वभर के पूंजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों के भी हाथ पैर फूल गए हैं। उनकी समझ में आ गया है कि वर्तमान आर्थिक मंदी या संकट इसी आर्थिक असमानता की देन है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि दुनिया में साढ़े तीन अरब लोग कुछ भी नया खरीद पाने में असमर्थ हैं तो उनके शोषण के बल पर, इनकी संपत्ति का हरण करने वाले ढाई सौ लोग कितनी मांग पैदा कर सकते हैं? वे उत्पादन और उपभोग में कितना योगदान कर सकते हैं? परंतु भारत जैसे देश खुली आंखों से दिन में सपने देख रहे हैं। वे कथित ‘जी.डीपी. ग्रोथ’ को मानव विकास से जोड़ने की भूल भी कर रहे हैं।

मोदी सरकार के दो साल इस मायने में महत्त्वपूर्ण हैं कि इससे हमें पता चल गया कि पूर्ण बहुमत की सरकार भी नागरिकों का कल्याण कर पाने में असमर्थ सिद्ध होती है, क्योंकि उन्हें भी कठपुतली की तरह कोई और संचालित करता है। बढ़ती महंगाई और घटता रोजगार एक ऐसे भविष्य का खाका खींच रहा है, जिसकी कल्पना मात्र से झुरझुरी होने लगती है। परंतु ‘मोदी सरकार: दो साल बेमिसाल’ एक अलग सतह और स्तर पर बेहद आशंकित कर रहे हैं। हम पिछले 60 वर्षों में अपने शासन के तौरतरीके नहीं बदल पाए हैं। यह अत्यंत दुखद है, कि धूमिल की निम्न पंक्तियां शाश्वत सत्य नजर आने लगी हैं:

दरअसल अपने यहां जनतंत्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है।