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टीना डाबी होने का मतलब
युवा संवाद - जून 2016 अंक में प्रकाशित
टीना डाबी ने क्यों हलचल मचा रखी है। लगभग हर साल ही सिविल सर्विसेज की परीक्षा में लाखों उम्मीदवार बैठते हैं और हर बार ही कोई न कोई टॉपर घोषित होता ही है। लेकिन इस बार कुछ अलग है। एक तरफ दलित समुदाय खुश है कि आरक्षण का संवैधानिक अधिकार मिलने के 66 सालों बाद यह मुकाम हासिल हुआ है। दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की बाढ़ आ गई है जो एक तरफ तो इसका राजनीतिक फायदा उठाने में जुट गए हैं और टीना डाबी की दर्जनों फर्जी प्रोफाइल बनाकर उनकी उपलब्धि को प्रधानमंत्री मोदी से जोड़ रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ वे एक दलित लड़की के टॉप करने की उपलब्धि को आरक्षण को खत्म कर दिए जाने के सबसे बड़े कारण के रूप में पेश कर रहे हैं। हालांकि अपनी फर्जी प्रोफाइल और बयानों से न सिर्फ टीना ने खंडन किया है बल्कि ऐसा दुष्प्रचार करने वालों की कड़ी निंदा भी की है। रोहित वेमुला मामले में भी ऐसे ही दुष्प्रचार का हथकंडा अपनाया गया था। उसकी जाति पर ही सवाल खड़ा कर दिया गया। एक तीसरा पक्ष भी है जो सोशल मीडिया पर सवाल खड़ा कर रहा है कि मोदी के शासन में टॉपर दलित बच्चों की झड़ी लगना कहीं ये संदेश तो नहीं देना है कि किसी अन्य सरकार के मुकाबले भाजपा के राज में दलितों के लिए अवसर कहीं ज्यादा हैं या उनके साथ भेदभाव मिट गया है? हो सकता है यह निरी अटकलबाजी हो, लेकिन जो लोग आरक्षण को खत्म किए जाने या उसे समाप्त करने की बहस उछालने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें ये ध्यान में रखना होगा कि न्यूनतम योग्यता के बूते नौकरियां हासिल करने के अलावा शीर्ष पदों पर टॉप करने के मामले में भी समान अवसर होना चाहिए। और ये अवसर अब दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हाथ में आया है। एक सवर्ण उम्मीदवार और एक दलित उम्मीदवार की पृष्ठभूमि एक जैसी नहीं होती, यह जगजाहिर है। इसलिए समान अवसर के लिए एक पैमाना नहीं हो सकता।
2011-12 की कृषि जनगणना के मुताबिक आज भी इस देश में 35 प्रतिशत जमीनें 5 प्रतिशत लोगों के हाथ में हैं। इसी असमानता को देखते हुए डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि देश की सारी जमीनों का राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए। सरकारी नौकरियों की बात करें तो गरीब तबके की भागीदारी नगण्य है। प्राइवेट सेक्टर की ऊंची नौकरियों पर भी वो लोग काबिज हैं, जो सम्पन्न हैं या पैसे के बूते इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट की डिग्री ली है। हाशिए के लोगों के पास अपवाद छोड़कर सिर्फ मजदूरी हाथ आई। प्रतिष्ठित अखबार टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार कालेजों और यूनिवर्सिटी में 22 प्रतिशत आरक्षण के बावजूद एससी/एसटी के शिक्षकों की संख्या 9 प्रतिशत है। यह असमानता मीडिया में भी है जहां एससी/एसटी की भागीदारी नगण्य है। प्रमुख अखबारों, चैनलों और पोर्टलों पर सवर्ण तबके का दबदबा है। देश की 25 फीसदी यानी एक चौथाई, आबादी दलित और आदिवासी है। लेकिन कार्यालयों में इनका प्रतिनिधित्व कितना है? अगर इसमें मुस्लिम आबादी को भी जोड़ दिया जाए तो यह कुल आबादी का 40 प्रतिशत हो जाता है। यानी सवा सौ करोड़ भारतीयों में 50 करोड लोग गरीबी, अशिक्षा, बेकारी से त्रस्त और यहां तक कि सम्मानजनक जीवन से भी वंचित हैं।
आरक्षण पर बहस चलाने वाले लोगों को सबसे पहले इन सवालों के उत्तर देने चाहिए। उन्हें इस बात का भी उत्तर देना चाहिए कि क्या आरक्षण खत्म कर देने से थोड़ी उन्नति कर पाए दलित सिर्फ बाबूगिरी और अध्यापकी जैसी नौकरियों तक नहीं सिमट जाएंगे? आज भी सरकारी नौकरियों में आए दलितों का एक बड़ा तबका आरक्षण का स्वाद चखने वाली पहली पीढ़ी है। दलितों की स्थिति पर चिंतन करने वाले समाज सुधारकों ने भी शिक्षा को ही उनकी मुक्ति का मार्ग बताया है। महात्मा ज्योतिबा फुले का ये कथन तो मशहूर है कि- ‘विद्या बिन मति गई, मति बिन गई गति, गति बिन नीति गई, नीति बिन वित्त गया और वित्त बिन चरमराए शूद्र। एक अविद्या ने कितने अनर्थ किए।’ देश के दलित समाज में परिवर्तन की मजबूत अंतर्धारा चल रही है, चाहे ये धार्मिक पाखंड की बात हो या अपनी जड़ों को तलाशने की या शिक्षा के बूते सम्मान और अवसर तलाशने की, यह मुद्दे का पुनर्पाठ है। इसे इन हवाई बहसों से अब रोक पाना मुश्किल है। पता तब चलता है जब कोई रोहित वेमुला गलती से सुर्खियों में आ जाता है या टीना डाबी जैसा कोई सितारों की तरह चमक उठता है। सारे राजनीतिक दल यूं ही डरे हुए नहीं हैं, समाज में एक अलग ही किस्म की बहस परवान चढ़ रही है। एक अलग किस्म का सांस्कृतिक परिवर्तन करवट ले रहा है। अब दलित बच्चे ब्रह्मा विष्णू महेश को मानने से इनकार करने लगे हैं, बेटे बेटियों की शादियां बौद्ध रीति रिवाज से होने लगी हैं, राम राम और नमस्कार की जगह अभिवादन में जय भीम आ गया है। दुर्गा, अम्बे, महिषासुर मर्दनी, जगदम्बा, जय माता दी का पुनर्पाठ हो रहा है। हिंदू मंदिरों के बरक्श अम्बेडकर की मूर्तियां लगाने का चलन तेज हो गया है। दलित समाज एक उगता हुआ सूरज है। यह अंतरधारा बहुत बड़ी उथल पथल लाने वाली है। यह दलित रेनेसां का युग है। (संदीप राउजी)