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निजता का अधिकार

युवा संवाद -  नवंबर 2017 अंक में प्रकाशित

भारत की अदालतें अपने दिए फैसलों में हमेशा संबंधित पक्षों के वकीलों द्वारा पेश की गई दलीलों को दर्ज करती हैं। (न्यायमूर्ति केएस पुत्तस्वामी द्वारा दायर) निजता वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अगस्त, 2017 को फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति नरीमन ने अपने दिए फैसले में पैराग्राफ 6 से 10 तक दलीलों को दर्ज किया है। मैं उस फैसले के पैराग्राफ 6 से कुछ उद्धृत करना चाहूंगा।

 

‘‘भारत सरकार की तरफ से पेश हुए, देश के विद्वान महाधिवक्ता श्री केके वेणुगोपाल का तर्क था कि आठ जजों के पीठ और पांच जजों के पीठ जिन निष्कर्षों पर पहुंचे थे उन्हें बाधित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि वे निष्कर्ष इस तथ्य से मेल खाते थे कि हमारे संविधान निर्माताओं ने निजता के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों से संबंधित अध्याय का हिस्सा बनाने से मना कर दिया था।’

 

पैराग्राफ 7, 8, 9 और 10 में यह उल्लिखित है कि मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणा की सरकारों ने महाधिवक्ता के ही तर्कों का सहारा लिया था, और कुछ तर्क अपनी तरफ से भी जोड़े थे। निजता की अवधारणा अपने आप में धुंधली, आत्मगत, अविकसित और बेतुकी है, आदि।

 

यह समझने के लिए निगमनात्मक तर्कशास्त्र की जरूरत नहीं है कि केंद्र सरकार और

भाजपा-शासित राज्यों ने जो साझा रुख अख्तियार किया वह भाजपा-नेतृत्व के स्तर पर तय हुआ थारू कि निजता का अधिकार कभी मौलिक अधिकार नहीं था, और होना भी नहीं चाहिए। अंत में, सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति (9-0) से दिए अपने फैसले में इन दलीलों को खारिज कर दिया। न्यायालय ने निजता को तर्कपूर्ण अवधारणा करार दिया, कि निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, और यह कि पहले के दो फैसले गलत थे, और अब से वे रद्द माने जाएंगे। इस तरह, केंद्र सरकार तथा भाजपा-शासित राज्य सरकारों द्वारा दी गई दलीलों को न्यायालय ने पूरी तरह खारिज कर दिया।

 

फैसला आने के बाद, भाजपा ने बातें बनानी शुरू कर दीं। केंद्र सरकार ने दावा किया, और वह भी अपने कानूनमंत्री के जरिए, कि अदालत ने सरकार के रुख को स्वीकार किया और सरकार फैसले का स्वागत करती है! जिन नौ जजों ने मामले की सुनवाई की, वे इस पर दंग रह गए होंगे। सरकार की टीम के जिस खिलाड़ी ने अपनी विश्वसनीयता धूमिल नहीं पड़ने दी, वह थे पूर्व महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी। एक साक्षात्कार में, उन्होंने दो टूक कहा कि अगर वह अब भी महाधिवक्ता होते, तो स्वीकार करते कि इस मामले में सरकार की हार हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि, उनके खयाल से, अदालत ने गलत फैसला दिया है।

एक ऐसे अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित करना, जो संविधान के भाग तीन में

स्पष्ट रूप से सूचीबद्ध नहीं था, अप्रत्याशित नहीं है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इसके पूर्ववर्ती

अधिकारों की एक सूची पेश की हैः

 

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस कवायद को ‘संविधान का डार्क मैटर’ तलाशने का नाम दिया। जिस तरह केशवानंद मामले में अदालत ने यह प्रतिपादित किया था कि संविधान का एक बुनियादी ढांचा है जो संशोधन के अधिकार-क्षेत्र से परे है, उसी तरह न्यायमूर्ति केएस पुत्तस्वामी के मामले में अदालत ने एक और बहुमूल्य स्थापना दी है- कि निजता का अधिकार, जीने के अधिकार और व्यक्तिगत आजादी (अनुच्छेद 21) का अविच्छिन्न अंग है। सरकार की हरेक कार्रवाई को, जिससे कोई व्यक्ति या नागरिक प्रभावित होता है, अब निजता के अधिकार के चश्मे से जरूर देखा जाएगा। सबसे पहले जिस चीज पर सवाल उठेगा वह है आधार को बहुत सारी गतिविधियों से जोड़ देना, जैसे आय कर रिटर्न, पैन, बैंक खाता, हवाई टिकट, स्कूल में दाखिला, आदि। यह आधार का मूल उद्देश्य कतई नहीं था, और यह बेशक निजता पर आक्रमण है। आधार की परिकल्पना यह सुनिश्चित करने के लिए की गई थी कि सरकारी लाभ और सबसिडी दोहरी, छद्म या झूठी पहचान के चलते गलत हाथों में न चले जाएं। सिर्फ कागज पर मौजूद ‘छात्रों’ द्वारा छात्रवृत्तियां हड़प लेने, मनरेगा के तहत मजदूरों की फर्जी उपस्थिति दर्ज किए जाने, दूसरी या कई और पहचान दिखा कर अवांछित रूप से सबसिडीयुक्त रसोई गैस के सिलेंडर हासिल करने, आदि के मामले सामान्य हो गए थे। आधार को लागू करने के पीछे इन गड़बड़ियों पर विराम लगाना था। लेकिन राजग के राज में आधार अपने मूल उद्देश्य से बहुत दूर चला गया और इसे वैसी बहुत सारी गतिविधियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है जिनका सरकारी लाभों और सबसिडियों से कोई ताल्लुक नहीं है। सवाल है, क्यों?

 

भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ) और डेटा सुरक्षा के इसके दावे पर अब नजर रखी जाएगी। नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) के अधिकार-क्षेत्र और आदेशों की अब समीक्षा की जा सकेगी। तलाशी और जब्ती, टेलीफोन टैपिंग, मौके-बेमौके निगरानी आदि के अधिकार सीमित होंगे। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निश्चय ही रद्द किया जाना चाहिए। एलजीबीटी के अधिकारों को मान्यता देने की जरूरत है। ‘अपने ग्राहक को जानो’ (केवाइसी) के तहत आंकड़ों का संग्रह, नई सूचनाएं पाने के लिए पहले से मौजूद डाटाबेस को खंगालना, आंकड़ों को दूसरों से साझा करना और व्यक्तिगत लक्षणों या चारित्रिक विशेषताओं पर आधारित वर्गीकरण करना, आदि जरूर अब नियमन (रेगुलेशन) के दायरे में होंगे। ‘भुला दिए जाने के अधिकार’ को अवश्य बाध्यकारी बनाया जाना चाहिए। मरने के अधिकार, दयामृत्यु (यूथेनेसिया) और

 

प्रजनन के अधिकार पर जरूर बहस होनी चाहिए। जो आजादी हमने 1947 में हासिल की थी, न्यायमूर्ति केएस पुत्तस्वामी ने निश्चय ही उसे और विस्तृत तथा और समृद्ध किया है। आज हम जश्न मना रहे हैं। कल दूसरी चुनौतियां होंगी, और हम उनसे भी पार पाएंगे।