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उड़ी आतंकी हमले के बाद

युवा संवाद - अक्तूबर 2016 अंक में प्रकाशित

उड़ी आतंकी हमले की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए एक बार फिर कहना चाहता हूं कि कश्मीर का विवाद एक राजनीतिक मसला है, इसे राजनीतिक पहल से ही हल किया जा सकता है। इसका सैन्य-समाधान नहीं है। आज हमने अपने 17 सैनिकों की मूल्यवान जिन्दगी खोई है। ये सभी किसी किसान या किसी मजदूर-कर्मचारी या किसी निम्न-मध्यवर्गीय परिवार के चिराग रहे होंगे। सत्ता-संचालन करने वाले हमारे अमीर सियासतदान और ऊंचे पदों पर बैठे अभिजात्य हुक्मरान बरसों-बरस से सरहद पर वही पुरानी नीतियां दुहरा रहे हैं-‘हर हमले का मुंहतोड़ जवाब देंगे या एक के बदले चार या सात सिर लायेंगे।’ क्या इससे हमारे जवान का वह एक सिर वापस आ जायेगा? ऐसे मौकों पर स्टूडियोज को ‘वाक् युद्ध-स्थल’ में तब्दील करने वाले कुछ चैनल आज बता रहे थे कि ऐसा भीषण आतंकी हमला 26 सालों में पहली बार हुआ। सवाल है, ऐसा क्यों भाई? 2014 में सत्ता में आने के बाद इस सरकार के संचालकों ने देश को बताया था कि अब दिल्ली में एक ताकतवर सरकार आ गई है। दुश्मन की औकात नहीं कि हमारी तरफ आंख उठाकर देखे। फिर आज यह सब क्यों हो रहा है?

 

दरअसल, ऐसे मसले उत्तेजक बयानों से नहीं हल होते। ‘बुद्धिहीन वीरता’ कामयाबी की तरफ नहीं ले जाती। आज जरूरत है, संजीदा होकर विचार करने की। अपनी रणनीति की समीक्षा करके नया रास्ता खोजने की। आखिर हम टकराव और आंतकवाद के स्थायी समाधान की कोशिश क्यों नहीं करते, ऐसा माहौल बनाने की रणनीति पर क्यों काम नहीं करते, जिसमें किसी का सिर न कटे! सरहद पर शांति और सौहार्द्र हो, जैसा आज दुनिया के लगभग सभी विकसित देशों की सरहदों पर है। अनेक देशों के उदाहरण हैं, जो सैकड़ों साल एक-दूसरे से युद्ध करते रहे लेकिन बीसवीं सदी में ज्यादातर ने अपने मसले राजनीतिक स्तर पर हल कर लिये और युद्ध से हमेशा के लिये तोबा कर लिया। इतिहास पलटकर देख लीजिये, यूरोप में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। उनका सैन्य-बंदोबस्त का खर्च कम हुआ। बजट का बड़ा हिस्सा वे विकास और अपनी जनता के कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करने लगे। यही कारण है कि वे आज जीवन के हर क्षेत्र मे आगे हैं।

 

 

 

हम गाय के माँस की राजनीति करते हैं और सारे देशभक्त सिर पर भगवा वस्त्र लपेट कर सडक पर हंगामा करते हैं। अब सब कहां हैं? क्यों नहीं केंद्र सरकार की असफलता पर सडक पर उतरते? विदेश घूमते रहने से विदेश नीति मजबूत नहीं हो सकती। विदेश नीति मजबूत होगी जब सदिच्छा और संकल्प हो। यहां तो फौजियों की शहादत की राजनीति होती है, न कि देश की रक्षा के लिए हर संभव कोशिश। आपको तो सत्ता मिल गई, देश को क्या मिला?

 

कुछ समय पहले श्रीनगर स्थित हमारी सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख ले.जनरल हुड्डा ने भी कहा था कि कश्मीर एक राजनीतिक मसला है, यह कोई कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है। इसलिये इसका समाधान भी राजनीतिक स्तर पर ही होना है। आखिर, हम अपने श्रेष्ठ और शीर्ष सैन्य-कमांडर की बात क्यों नहीं सुनते ! इधर शाम कुछ टीवी स्टूडियोज की बहस-चर्चाएं सुनते हुए मन क्षोभ और विषाद से भर जाता है। सरहद पर हमारे जवान शहीद हुए हैं लेकिन वातानुकूलित स्टूडियो में बैठे कुछ महाशय ‘मार डालो-खत्म कर डालो, टुकड़े-टुकड़े कर डालो’ की दहाड़ लगा रहे थे। कुछ हिन्दी चैनल बता रहे थे, ‘भारत-पाकिस्तान में परमाणु-युद्ध होने की स्थिति में भारत से ज्यादा नुकसान पाकिस्तान का ही होगा। वह बरबाद हो जायेगा।‘ मानो परमाणु युद्ध की स्थिति में भारत आबाद रहेगा! आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, कैसे विचारक हैं, कैसे सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं, जो सिर्फ युद्धोन्माद का धंधा करते दिखते हैं! आतंकवाद को सिरे से खारिज करते हुए मैं युद्धोन्माद की दो-तरफा कोशिशों को भी खारिज करता हूं। आज की दुनिया में विवादों का स्थायी समाधान किसी युद्ध से नहीं, राजनीतिक पहल से ही खोजा जा सकता है।