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बीएचयू की छात्राओं का संघर्ष

युवा संवाद -  अक्टूबर 2017 अंक में प्रकाशित

यह समझ पाना मुश्किल है कि बातचीत के जरिए विद्यार्थियों की समस्याएं सुलझाने के बजाय विश्वविद्यालय प्रशासन केवल बल प्रयोग पर क्यों यकीन करने लगा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय और चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में पुलिस के जरिए विद्यार्थियों को ‘अनुशासित’ करने का प्रयास किया गया। उसके चलते प्रशासन के तौर-तरीकों को लेकर ढेरों सवाल उठे। पर लगता है, उन घटनाओं से दूसरे विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने कोई सबक नहीं लिया। इसी का नतीजा है कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में सुरक्षा की मांग को लेकर शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रही छात्राओं पर शनिवार देर रात पुलिस ने लाठी भांजी, जिसमें कई छात्राएं गंभीर रूप से घायल हो र्गइं।

 

बीएचयू में छात्राओं के साथ छेड़खानी की घटनाएं आम हैं। बीते गुरुवार को एक छात्रा के साथ कुछ युवकों ने बदसलूकी की। उसके विरोध में छात्राओं ने कुलपति कार्यालय के बाहर धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनकी मांग थी कि कुलपति खुद आकर उनकी बात सुनें और लड़कियों के लिए सुरक्षा-उपायों का यकीन दिलाएं। मगर दो दिन बीत जाने के बाद भी प्रशासन का कोई जिम्मेदार व्यक्ति उनसे बात करने नहीं आया। उलटे शनिवार रात को छात्राओं पर पुलिस से लाठी चलवा दी गई।

 

विचित्र है कि बीएचयू में छात्राओं के आंदोलन में ऐसे लड़के भी घुस आए, जो लड़कियों की सुरक्षा की मांग का साथ देने के बजाय नारा लगाने लगे कि वे बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे। यानी शाम ढलने के बाद लड़कियों का छात्रावास से बाहर निकलना उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है। बताया जाता है कि बीएचयू प्रशासन ने भी लड़कियों का पक्ष समझने के बजाय यह दलील पेश की कि वे रात को छात्रावास से बाहर निकलती ही क्यों हैं।

 

आज जब लड़कियों की बराबरी की बात की जा रही है। प्रधानमंत्री बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा देते फिरते हैं, बीएचयू जैसे शैक्षिक परिसरों में छात्राओं को बंदिशों में बांधने का प्रयास हो रहा है। जिस वक्त बीएचयू की छात्राएं अपनी सुरक्षा के लिए आवाज उठा रही थीं, प्रधानमंत्री बनारस के दौरे पर थे। सुरक्षा कारणों से उनका रास्ता बदल दिया गया, मगर यह भी तो जरूरी था कि वे छात्राओं की सुध लेते।

 

 

 

इस पूरे घटनाक्रम में स्थानीय अखबारों की भूमिका बहुत संदिग्ध और शर्मनाक मालूम पड़ती है, जिसका सबसे ज्वलंत उदाहरण तो यही है कि लाठीचार्ज की अगली सुबह जब बाकी अखबारों में मजबूरी में थक-हार कर मोदी की खबर के समानांतर पहले पन्ने पर बीएचयू की खबर सेकंड लीड छापी, बनारस का ‘अपना’ अखबार फिर भी इससे गाफिल रहा। 24 सितंबर के ‘आज’ संस्करण में बीएचयू से जुड़ी एक भी खबर नहीं है। यह बाबू विष्णुराव पराड़कर की पत्रकारिता की विरासत का ऐसा मखौल है जो पहले देखने को नहीं मिला। एक समय था जब बीएचयू के किसी भी आंदोलन में पत्रकार हमेशा छात्रों के साथ सहानुभूति और एकजुटता के भाव के साथ खड़े होकर रिपोर्टिंग करते थे लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग रहा। ऑपरेशन की रात देखा गया कि तमाम अखबारों के पत्रकार पुलिस सुरक्षा में पीछे-पीछे छुपकर घटनाओं को कवर करते रहे और एकाध को छोड़ दें तो अधिकतर ने परिसर के भीतर छात्रों के बीच जाने और उनका हाल जानने की की जहमत नहीं उठाई।

 

विश्वविद्यालय के कुलपति ने शनिवार रात को हुई घटना की जांच के आदेश दे दिए हैं। दरअसल, पुलिस ने लड़कियों पर लाठी चलाई उसके बाद छात्रों के साथ उसकी हिंसक झड़पें भी र्हुइं। परिसर में कुछ वाहनों को आग लगा दी गई। कुलपति का कहना है कि आगजनी और पुलिस के साथ हिंसक झड़पें करने वाले परिसर के बाहर के लोग थे। उनकी पहचान के लिए जांच समिति बना दी गई है। मगर कुलपति को छात्राओं से बात करने से क्या गुरेज थी? आखिर उनके परिसर की एक छात्रा के साथ बदसलूकी हुई थी। क्या यह घटना उनके लिए चिंता का विषय नहीं थी? आखिर परिसर में छात्राओं की सुरक्षा विश्वविद्यालय-प्रशासन की जिम्मेदारी है या नहीं? फिर, एक कुलपति और विद्यार्थियों में इतनी दूरी क्यों होनी चाहिए? जहां सुरक्षा के मद्देनजर छात्राओं को शाम ढले छात्रावास से बाहर न निकलने की नसीहत दी जा रही हो, वहां के प्रशासन से असुरक्षा के असल कारणों को दूर करने तथा सुरक्षा-उपायों को पुख्ता करने और अपनी जिम्मेवारी को गंभीरता से लेने की कितनी उम्मीद की जा सकती है!